हे पार्थ अब रुक मत
उठा शीश अब झुक मत
अतुल्य कला मत रख अंदर,
तू पृथापुत्र तेरे पिता पुरंदर।
है चट्टानों सा तेरा सीना,
बाणों के वेग को तूने छीना।
गाण्डीव का आवाहन करना,
है उनसे पहले तुझे खुद से लड़ना।
क्यूँ समझे तू उसे संबंधी?
अधर्मी से किया जो संधि
वो तेज प्रतापी महापुरुष थे?
जो रोक सके न रण पौरुष से।
मत कह बंधु अपने दुश्मन को,
जो टोक सके न दुस्साशन को,
जब पांचाली का उसने चीर हरा,
देख रहा था समस्त सभा बस मूक खड़ा।
उस सभा में तेरे गुरुजन भी थे,
दुष्ट दुस्साशन और दुर्योधन भी थे,
महाज्ञानी गुरु द्रोण भी थे,
कुछ बोले न वो मौन ही थे।
वहीं सभा में थे भीष्म पितामह
जिनके मुख से निकला ना आह,
जब पौत्र-वधु थी विलाप रही
माधव का नाम बस जाप रही।
क्षण शेष नहीं अब विजय में है,
क्या अब भी तू संसय मे है?
उठा गांडीव कर प्रहार तू
अधर्मियों का कर संघार तू
धर्म का रख फिर नीव नया
बन कर्मयोगी, तू अब छोड़ दया
क्यों है विकल जब कृष्ण हैं सारथि,
कर ले विजय अब कुरु की धरती।
-मनीष कुमार टिंकू

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