फिर किसी मोड़ पे शायद हम मिलें कभी,
उस मोड़ पे जहाँ मिलते हैं अजनबी सभी।
उन अधूरी बातों का करूँ ज़िक्र तुमसे,
जो घंटों बैठ किया था बेफ़िक्र तुमसे।
कुछ रह गया था बाकी मुझमें,
क्या वो तुम थी या मेरे अधूरे सपने?
छोड़ गयी थी मुझे अकेला बीच भंवर में
तेरी खातिर बना हूं छैला , अपनी आँखें मीच सँवर मैं।
फिर उन बागों में हम साथ चलें,
जहाँ पहली दफ़ा दो हाँथ मिलें।
उन हांथो को फिर चुम सकूँ,
मजनू बनकर फिर झूम सकूँ।
फिर कभी ना जाने दूँ तुझको मैं,
बस तेरा बन जाने दूँ खुद को मैं।
क्या मेरे बिखरे ख्वाबों को समेट सकोगी फिर?
उम्मीदों के फूल खिलेंगे या बंजर खेत करोगी फिर?
-मनीष कुमार टिंकू

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