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Showing posts from August, 2022

हे पार्थ

हे पार्थ अब रुक मत  उठा शीश अब झुक मत  अतुल्य कला मत रख अंदर, तू पृथापुत्र तेरे पिता पुरंदर। है चट्टानों सा तेरा सीना, बाणों के वेग को तूने छीना। गाण्डीव का आवाहन करना, है उनसे पहले तुझे खुद से लड़ना। क्यूँ समझे तू उसे संबंधी? अधर्मी से किया जो संधि वो तेज प्रतापी महापुरुष थे? जो रोक सके न रण पौरुष से। मत कह बंधु अपने दुश्मन को, जो टोक सके न दुस्साशन को, जब पांचाली का उसने चीर हरा, देख रहा था समस्त सभा बस मूक खड़ा। उस सभा में तेरे गुरुजन भी थे, दुष्ट दुस्साशन और दुर्योधन भी थे, महाज्ञानी गुरु द्रोण भी थे, कुछ बोले न वो मौन ही थे।  वहीं सभा में थे भीष्म पितामह    जिनके   मुख से निकला ना आह, जब पौत्र-वधु थी विलाप रही माधव का नाम बस जाप रही। क्षण शेष नहीं अब विजय में है, क्या अब भी तू संसय मे है? उ ठा गांडीव कर प्रहार तू अधर्मियों का कर संघार तू  धर्म का रख फिर नीव नया बन कर्मयोगी, तू अब छोड़ दया  क्यों है विकल जब कृष्ण हैं सारथि, कर ले विजय अब कुरु की धरती।                      ...

सावन थे तुम

मेरे तो, सावन थे तुम, बिन बादल बरसात किए बहार जो लाते थे, मेरे तो, यौवन थे तुम,  पावन पुष्प पुलकित कर पल में, फुहार जो लाते थे, मेरे तो, मनभावन थे तुम,  परम प्रेम प्रमाणित किए बिन जो प्यार जताते थे, मेरे तो, आँगन थे तुम, तेज़ तरुण तुलसी से जो घर-बार सजाते थे, मेरे तो, माधव थे तुम, रात्रि रोज राधा रानी संग जो रास रचाते थे, मेरे तो, प्रारभ थे तुम, निर्मल निश्छल निरूपण मन के पास जो लाते थे, मेरे तो, अंजन थे तुम, नव नयन नभ अयन से बहकर जो निबंध बन जाते थे।   तेरे तो, मनोरंजन थे हम, अमुक अज्ञात अविरल अज्ञान के अश्रु से अंजुली भर आते थे। -मनीष कुमार टिंकू   

सरहद

इंसानियत का कोई धर्म नहीं, इंसानो में भेद करना उनका कर्म नहीं, किसी दिन कोई गरीब भूख से मरे कहीं, फिर रहे इंसानियत में कोई शर्म नहीं। बेहद गरीबी की कोई सरहद नहीं, दो रोटी जो बाँट दो, तो होगी कम बरकत नहीं, दो मुल्कों में हो गर इतनी नफरत नहीं, न रहे कोई गरीब, कोई सरहद और दहशत कहीं। मिटा कर देखो उन लकीरों को कभी, मिल कर तोड़ दो जंजीरो को सभी, किसी दिन जो चाँद से मिलें ज़मीं,  न रहें कोई मुल्क, हो शिकवे-गिले नहीं।  -मनीष कुमार टिंकू 

तस्वीर

सब कहते हैं, तुम कोई हूर नहीं, मामूली सी हो, कोई मशहूर नहीं। मैं कहता हूँ कि उनका कोई कसूर नहीं, किसी ने देखा ही नहीं मेरी नज़रों से, तेरे चेहरे का वो नूर कभी।  है दोनों जहाँ में न तुमसा कहीं,  हूरों से भी ज्यादा तुम हो हसीं।   सब कहते हैं कि तुम एक झूठा सपना हो, मिथ्या हो, तुम तो बस एक कल्पना हो।  मैं कहता हूँ की सपने भले ही झूठें हों, मुझसे अपने भले ही रूठें हों, कुछ उलटे - सीधे सवाल भी उठें हों,  क्या झूठ है वो मुस्कान मेरी, जब-जब साथ मेरे तुम बैठे हो? है साथ हमारा आज नहीं, हो सात जन्म के बाद सही।  एक दिन जब तुम आजाओगी, सबको सच्चाई बतलाओगी।  प्यास मेरी जो अधूरी होगी, तुम आसुंओ से अपनी बुझाओगी। जब अंतिम सबर भी टूटेगा, मैं रौद्र रुप दिखलाऊंगा। फिर भी सवाल जो फूटेगा, उस दिन सबको बतलाऊंगा -  हो कथा मेरी, तुम व्यथा नहीं, तुम "सत्या" हो, कोई मिथ्या नहीं। मैं हूँ मलंग, तुम सत्संग मेरी, मैं हूँ प्रसंग,  तुम जंग मेरी। दिवाली की "ज्योति" हो तुम,  होली की हो रंग मेरी। तुम हूर नहीं, हो हीर मेरी, हूँ राँझा मैं, तुम पीर मेरी अबआजाओ बन तक़दीर मेर...

उम्मीदों के फूल

फिर किसी मोड़ पे शायद हम मिलें कभी, उस मोड़ पे जहाँ मिलते हैं अजनबी सभी।  उन अधूरी बातों का करूँ ज़िक्र तुमसे, जो घंटों बैठ किया था बेफ़िक्र तुमसे।  कुछ रह गया था बाकी मुझमें, क्या वो तुम थी या मेरे अधूरे सपने? छोड़ गयी थी मुझे अकेला बीच भंवर में  तेरी खातिर बना हूं छैला , अपनी आँखें मीच सँवर मैं।  फिर उन बागों में हम साथ चलें, जहाँ पहली दफ़ा दो हाँथ मिलें।   उन हांथो को फिर चुम सकूँ, मजनू बनकर फिर झूम सकूँ।   फिर कभी ना जाने दूँ तुझको मैं,   बस तेरा बन जाने दूँ खुद को मैं।  क्या मेरे बिखरे ख्वाबों को समेट सकोगी फिर? उम्मीदों के फूल खिलेंगे या बंजर खेत करोगी फिर? -मनीष कुमार टिंकू 

बंधन

तुझसे मिलना भी अब सपना सा है, जो तुझसे मिलता है, क्या कोई अपना सा है? तुझे सोच कर अब भी चेहरे पे आती है "मुस्कान", जो तुझसे सोच न मिले, तो क्या हो जाऊं अनजान ? तुझे अब भी संभाल  कर रखा है किताबों के बीच, जो तुझसे कांटे हैं मिले, क्यों मिलें उन गुलाबों को सींच? तुझसे कहना मैं चाहता हूँ दिल की बात, जो तुझसे कह देता, तो क्या होती वो आख़िरी मुलाक़ात ? तुझे अब भी देख लेता हूँ, मैं बंद आँखों के पार, जो तुझे मैं भले ही न दिखूँ , क्यूँ मुझे है दिखती तू लाखों के पार? तुझे वादा किया था न भूलने का कभी , जो न भूलूँ तो क्या आओगी मिलने तोड़कर बंधन सभी? -मनीष कुमार टिंकू